३ मई,२००१ का दिन, गुरूवार की सुबह सुबह मै कुवैत एयरपोर्ट पर उतरा, दिल्ली काफी पीछे छूट चुका था, और साथ ही छूट चुकी थी, खट्टी मीठी यादें. बचपन बीता कानपुर की गलियों मे, पढाई के लिये कई बार शहर को कई कई महीनो के लिये छोड़कर गया, लेकिन अन्ततः कानपुर को ही कर्मस्थली बनाया, कानपुर के कम्पयूटर उद्योग मे काफी यश अपयश कमाया, फिर एक दिन लगा कि ये वो मंजिल नही, जिसकी मुझे तलाश है. कानपुर मे रहकर वो सब कुछ हासिल कर पाना मुमकिन नही दिखा, जिसकी मुझे तलाश थी. फिर नयी शुरुवात हुई दिल्ली मे एक साफ्टवेयर कम्पनी मे प्रोजेक्ट मैनेजर के रूप मे, काफी कुछ सीखा, समझा और पाया कि अब तक कानपुर मे रहकर मै जो कर रहा था, वो समय की बरबादी के सिवा और कुछ नही था.लेकिन हर चीज कुछ ना कुछ नया सिखाती है, सो कानपुर मे रहकर कस्टमर इन्टरेक्शन,सपोर्ट और रिक्वायरमेन्ट एनालिसिस मे मैने जो महारत हासिल की थी, उसका काफी फायदा दिल्ली मे दिखा. यहाँ आकर नयी नयी टैक्नोलोजी पर हाथ साफ किया, टीम मैनेजमेन्ट के काफी गुर यहाँ पर आकर ही सीखे. नयी चीजे सीखने का मेरे को बचपन से ही शौंक रहा है.धीरे धीरे काम बढा, व्यस्तता बढी,ख्याति बढी साथ ही जानकारी भी. दिन कब निकल जाता पता ही नही चलता और कब रात हो जाती, कोई खबर नही होती. जब घर से फोन आता कि कब आओगे, तब पता चलता अरे! ये तो रात के दस बज रहे है, फिर फटाफट पैकअप करता, और घर की तरफ भागता. घर वाले कहते थे, मै उन पर जुल्म कर रहा हूँ और अपनी लाइफ को इतना बिजी करके अपने आपको भी तकलीफ दे रहा हूँ, और साथ ही अपनी नन्ही सी बेटी को भी वक्त नही दे पा रहा हूँ. मै चुपचाप इन इल्जामों का सुनता रहता.बोलता क्या, कोई जवाब होता तो ही देता ना.लेकिन एक और शख्स था जो चुपचाप मेरे जुल्म सह रहा था, वो था रामसिंह. मेरा ड्राइवर, बेचारे को सुबह छह बजे ड्यूटी पर आना होता था और रात का तो कुछ पता ही नही चलता था. लेकिन रामसिंह ने कभी भी मुंह नही बनाया, उत्तरान्चल की पहाड़ियों के किसी कस्बे का ये गबरू नौजवान, हमेशा हँसता मुस्कराता रहता. कभी कभी तो मुझे उससे जलन होती कि कैसे ये इतने स्ट्रैस मे भी मुस्करा पाता है. कई बार सोचा कि अपने वर्क स्ट्रैस को कम करने के लिये किसी मैडीटेशन क्लास को ज्वाइन करूँ, हमेशा मामला सिर्फ रजिस्ट्रेशन और फीस जमा करने तक ही सीमित हो जाता था, क्लास ज्वाइन करने वाले दिन ना जाने कैसे टूर का प्रोग्राम बन जाता था और फिर वही ढाक के तीन पात.
अब दिल्ली को कर्मस्थली तो बनाया, लेकिन कभी दिल मे नही बसा सका. कहाँ वो कानपुर का बेफ्रिक्र सा शहर,हर तरफ जानी पहचानी गन्दगी, धूल मिट्टी, देखी समझी गलियाँ,वो नजाकत और नफासत की जुबान, दोस्तो से तो बिना गाली गलौच के तो बात ही नही होती थी.और कहाँ ये दिल्ली, कुछ पता ही नही चलता कि अगला बन्दा कौन सी भाषा मे अगला जुमला बोल दे, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की डन्डामार बोली या फिर हरयाणवी। ऊपर से तुर्रा ये कि पंजाबी तो जैसे मातृ भाषा हो।इतना सबकुछ सहकर भी हम दिन काटे जा रहे थे, सोचने का वक्त ही किसे था.फैमिली ये सोच कर खुश थी कि देश की राजधानी मे रह रहे है, उनकी ये खुशी ज्यादा दिन नही रही, क्योंकि एक के बाद एक आने वाले नजदीक और दूर के रिशतेदारो और मेहमानो ने नाक मे दम कर रखा था.जिसे देखो मुंह उठाकर हमारे घर की तरफ़ दौड़ा चला आता था। घर घर ना रहा धर्मशाला हो गया। मै तो आफिस और टूर पर रहता था, परेशानी तो श्रीमतीजी को थी, थोड़े ही दिनो मे उनको भी पता चल गया कि दिल्ली मे रहने के क्या नफ़ा नुकसान है.लेकिन अब पछताय का होत, जब चिडिया चुग गयी खेत।लेकिन शायद ईश्वर से मिसेज की परेशानी देखी नही गयी।जिन्दगी ठीक ठाक चल ही रही थी कि फिर एक दिन सब कुछ कुछ बदल दिया.
विदेश यात्रा का योग
इन्टरनैट पर किसी जाब साइट पर मेरे प्रोफाइल को देखकर एक नही तीन तीन कम्पनियों ने मेरे को जाब आफर भेज दी थी, एक लन्दन मे बसी किसी भारतीय की साफ्टवेयर कम्पनी थी, दूसरी थी अमरीका की एक कम्पनी और तीसरी थी कुवैत मे एक पेट्रोलियम कम्पनी. तीसरी कम्पनी से बातचीत तो दो साल पहले से चल रही थी, और मै हमेशा उनको टालता आ रहा था, क्योंकि मेरे को मिडिल ईस्ट मे जाने का कतई शौंक नही था. वे लोग जब भी इन्डिया आते, मेरे को मिलने के लिये जरूर बुलाते जरूर, हर बार वे अपने आफर को रिवाइज करके पटाने की कोशिश करते. इस बार भी उनका मैनेजर दिल्ली आ रहा था, और मेरे को रैडिसन होटल मे अपने इन्डिया आफिस मे मिलने के लिये बुलाया. इस बार मैने सोचा था, कन्टी मार जाऊंगा, लेकिन ऐसा हो नही सका, क्यों, उसकी भी अजीब कहानी है. मेरा यूएसए जाने का लगभग पक्का हो चुका था, और मैने उनको पासपोर्ट की कापी भी उनको भेज दी थी. इसी वजह से मैने लन्दन वाली कम्पनी को ना कर दिया था. अब आप इसे किस्मत कहिये या नसीब, लन्दन वाली कम्पनी फ्राड निकली, और मै बाल बाल बच गया. अब यूएसए ही पक्का हो चला था, एक दिन उनका फोन आया कि उनकी कम्पनी एक दूसरी कम्पनी ने टेकओवर कर ली है लेकिन आपका एप्रूवल हो चुका है, लेकिन नियुक्ति तीन महीने बाद ही हो सकेगी, क्योंकि कुछ तकनीकी वजहे थी. मामला साफ दिख रहा था कि कम्पनी नियुक्ति देने मे आनाकानी कर रही थी, ऐसा सिर्फ दो वजहों से ही होता है या तो उनको कोई मेरे से ज्यादा काबिल बन्दा मिल गया था, या फिर मेरे से ज्यादा सस्ता बन्दा मिल गया था, या फिर दोनो वजहें एक साथ हो सकती है. गुस्सा तो बहुत आया, सारे सपने धराशायी होते दिखे, फिर बी गुस्से पर काबू किया और मैने भी मन ही मन निश्चय कर लिया था कि अब इस कम्पनी की इमेल्स और फोन काल्स का भी जवाब नही दूँगा.
इस बीच कुवैत वाले लोग दिल्ली आ रहे थे, तो मैने उनसे मिलने का निश्चय किया. काफी निगोशियशन्स के बाद ये तय हुआ कि मै तीन महीने कुवैत मे रहकर देखूँगा, और पसन्द आया तो ही उसके बाद फैमली को बुलाऊंगा, उनको कोई आपत्ति नही थी. सो फटाफट नियुक्ति पत्र और टिकट भिजवायी गयी, वे तो चाहते थे, कि मै अगली ही फ्लाइट से कुवैत पहुँच जाऊँ, लेकिन वर्तमान कम्पनी से भी कुछ कमिटमेन्ट्स थे, वो भी निभाने थे, जो प्रोजेक्ट मे कर रहा था, उसके खत्म होने मे दो महीने का वक्त बाकी था, मैने अपने प्रोजेक्ट लीडर को सैट किया और सारा काम हैन्डओवर करने का प्रोसेस चालू किया, रिजाइन लैटर तो मै नियुक्ति पत्र मिलते ही दे चुका था, किसी तरह से बाकी का बचा काम पूरा कराया. तो कम्पनी अड़ गयी, कि रिलीज नही करेंगे, चाहो तो कुवैत से मिले आफर को मैच कर देंगे. लेकिन अब काफी देर हो चुकी थी, कुवैतियों को भी हाँ बोल चुका था, उधर श्रीमती जी भी मेरे अति व्यस्त होने के घटनाक्रम से दुखी थी, सो मुझे वर्तमान कम्पनी के नये मलाईदार आफर को ना करना ही पड़ा और कुवैत के लिये प्रस्थान करने के लिये प्रक्रिया चालू कर दी.
यात्रा की तैयारियां
मै सबसे पहले तो नियु्क्ति पत्र और वीजा लेकर दिल्ली स्थित कुवैत दूतावास गया. दूतावास के बाहर एक खिड़की पर कोई दढियल क्लर्क बैठा था, मैने अपने कागज उसकी और बढाये, उसने बिना देखे ही मेरे को लम्बा चौड़ा प्रोसेस बताया और बोला कि मेडीकल होगा, ये होगा, वो होगा, वगैरहा वगैरहा. मै परेशान, सोचा कि कहाँ फंस गया यार!.मैने पेट्रोलियम कम्पनी के दिल्ली आफिस को फोन किया तो वे बोले, वंही पर रूककर हमारे फोन का इन्तजार करो, पन्द्रह मिनट बाद उनका फोन आया और वे बोले कि कुवैत दूतावास मे जाकर फलाने आफिसर से मिल लो, वो आपका इन्तजार कर रहे है, अब गेट पर बन्दा अन्दर जाने दे, तभी तो बात हो ना, किसी तरह से गेटकीपर को फ़लाने आफ़िसर का नाम बताया, बहुत समझाने बुझाने पर उसने फ़ोन से बात करवाई और उसके आदेश पर ही दरवाजा खुला और हम अंदर घुसे और आफिसर से मिले, उसने मेरे कागजात देखे और बोला, आपको कुछ नही करना है, सीधी फ्लाइट लीजिये और कुवैत की तरफ प्रस्थान कीजिये. खिड़की वाले बन्दे को भी बुलाकर डाँट पिलायी कि किसी को सलाह देने के पहले कागजात देख लिया करो, अब कागजों मे तो सब कुछ अरबी मे लिखा दिख रहा था और अरबी तो मेरे पुरखों को भी नही आती थी. खैर अब जब लोगों को पता चला कि मै विदेश वो भी गल्फ़ जा रहा हूँ तो रोजाना सलाह देने वालों की भीड़ लगने लगी। मिसेज तो चाय पिला पिलाकर थक गयी, लेकिन पति विदेश जा रहा है, इसके अहसास से ही उनमे नयी स्फ़ूर्ति थी, इसलिये एक नही कई कई चाय के पैकेटों की कु्र्बानी दी गयी। कई लोगों ने सलाह दी कि कुछ अरबी सीखने की किताबे भी लो, खोज शुरु हुई, और जाकर खत्म हुई, पुरानी दिल्ली के जामा मस्जिद के इलाके मे जहाँ से हिन्दी अरबी और अंग्रेजी अरबी सिखाने वाली किताब मिली, साथ ही एक किताब और खरीद ली “खाड़ी मे कैसे काम करें और रहें?” (HOW TO WORK AND LIVE IN GULF), दोनो किताबों को पढा, पल्ले तो कुछ नही पड़ा, फिर भी सब कुछ समझने का नाटक करता रहा.खैर कुछ और लोग भी सामने आये, समझाने के लिये, अब उन पर लिखूंगा तो ब्लाग भर जायेगा, उसपर फिर कभी. अब वो दिन भी आया जिस दिन मुझे कुवैत के लिये निकलना था. यानि कि २ मई, २००१ की रात. तो जनाब ये था सफ़र की शुरुवात का दिन। यानि हिन्दुस्तान को अलविदा कहने का वक्त आ गया था। दिल भारी था, मन बैचेन, लेकिन कंही ना कंही मुझे गुमान था कि मै अपनी मंजिल की तरफ़ कदम बढा रहा हूँ।
कुवैत:प्रथम परिचय
दिल्ली से कुवैत का सफर पूरे साढे तीन घन्टे का था, सुबह सात बजे हवाई जहाज ने रनवे पर कदम रखा और मैने एक नये और अजनबी देश मे. मन मे कई सवाल थे, बहुत सारी आशंकायें थी लेकिन मन मे बस एक ही विश्वास था, कि जल्द ही मै वापस अपने देश मे लौटूंगा क्योकि मै सोच कर आया था, जरा सा भी मामला उन्नीस बीस दिखा, तो दिल्ली की फ्लाइट पकड़ने मे ज्यादा देर नही लगाऊँगा. कुवैत के बारे मे जानकारी इकट्ठा करने का समय ही नही था, इसलिये बस कुवैत के बारे मे बस यही पता था कि दुनिया के सबसे अमीर देशो मे से एक है, गल्फ के रेगिस्तान मे, संसार मे सबसे ज्यादा गर्म स्थलो मे से एक है, जहाँ इतनी गर्मी होने के बावजूद भी आबादी बसती है. सोचते सोचते बाहर निकलने का वक्त आ गया. मै एराइवल लाउन्ज से आगे इमीग्रेशन काउन्टर पर बढा, वहाँ बैठा कुवैती जिस तरह से लोगो को हैन्डिल कर रहा था, उसे देखते ही मुझे कुवैतियों के अक्खड़ होने का अहसास हुआ, ये मेरा पहला इम्प्रेशन था, मै भी लाइन मे लग गया और अपनी बारी आने पर अपना पासपोर्ट और वीजा उसकी तरफ बढाया, बन्दे की नजरे हर बन्दे को एक्सरे कर रही थी. सो कागज लेने के पहले उसने मेरे को भी कुछ ऐसी नजरो से देखा जैसे कि मै हिन्दुस्तान मे कोई बैंक लूट कर आया हूँ, लेकिन कागज उसके हाथ मे पहुँचते ही उसके चेहरे के एक्प्रेशन बदलने लगे, अक्खड़पने की जगह अपनापन दिखने लगा उसने अरबी लहजे वाली अंग्रेजी मे मुस्कराते हुए कहा “वैलकम टू कुवैत, होप यू वुड लाइक दिस कन्ट्री”, मै थैक्यू कहकर सोचने लगा कि मेरे कागजों मे ऐसा क्या था, जिसने उसके व्यवहार को बदल कर रख दिया, अब वीजा मे जो लिखा तो वो तो मेरे पिताजी भी नही पढ सकते थे, इसलिये मैने चुपचाप बाहर निकलने मे ही भलाई समझी. एक बात और बता दूँ कि दिल्ली से कुवैत आते समय मै सिर्फ दस बारह हजार रूपये ही डालर कन्वर्ट करा कर आया था, क्योंकि मेरे को बताया गया था कि कुवैत पहुँचकर आपको पैसे मिल जायेंगे, और हिन्दुस्तान मे जारी किया गया क्रेडिट कार्ड भी कंही नही चलता था, सो मेरे मन मे कुछ कुछ चिन्ता तो थी ही. खैर मै बाहर निकला तो एराइवल लाउन्ज के एक्जीट पर एक शोफर मेरे नाम का बोर्ड लगाये, बड़ी बेसब्री से इन्तजार कर रहा था. मैने उससे नजरें मिलायी और उसको हैलो बोला, उसने इसके जवाब मे मेरी ट्राली मेरे से ले ली, मुझे अजीब लगा, मेरे पास बहुत सारे सवाल थे, लेकिन अब करता क्या, वो कुछ बोले तो मै कुछ बताऊँ ना.शोफर ने मुझे गाड़ी की तरफ रास्ता दिखाया, और हम कुवैत शहर की तरफ निकल पड़े. कुवैत मे चारो तरफ इतनी हरियाली देखकर मेरा तो दिमाग ठनक गया और मै सोच मे पड़ गया कि कंही मै गलत जगह तो नही उतर गया, कहाँ मेरे दिमाग मे रेगिस्तान और कहाँ ये हरा भरा सा शहर, कुछ पल्ले ही नही पड़ रहा था, और ड्राइवर भी चुन कर भेजा गया था, जिसको हैलो के आगे अंग्रेजी का एक शब्द भी नही आता था. मैने खिड़की के बार के नजारों मे अपना ध्यान लगाने की कोशिश की. मै आगे वाली सीट पर ड्राइवर के पास ही बैठा था, ताकि मेरे को नजारा अच्छा दिखायी पड़े, ड्राइवर ने मेरे को सीट बैल्ट बांधने मे मदद की, अब ये पहला मौका था, जब मे कार मे बैठकर सीट बैल्ट बांध रहा था, हिन्दुस्तान मे तो कार की सीट बैल्ट का उपयोग ही नही पता था. मै होटल पहुँचा, कम्पनी ने ये होटल इसलिये सिलेक्ट किया था क्योंकि ये आफिस के बेहद करीब था. होटल के रिसेप्शन पर पहुँचकर कुछ राहत महसूस हुई क्योंकि वहाँ पर बन्दा इन्डियन दिख रहा था, मैने सोचा चलो भई, कुछ तो कोई तो मिला जिसको मै वीजा दिखाकर सवाल पूछ सकूंगा. खैर मैने फार्मेल्टीज पूरी की, और अपने कमरे की तरफ बढा.
सस्पेन्स का पटाक्षेप
रिशेप्सन वाला भइया, अपने बनारस का था, उसको मैने कागज दिखाकर पूछ ही लिया कि इन कागजों मे कौन सी अच्छाई/खराबी है, जो हर बन्दा मेरे को विशेष नजरो से देखता है.होटल वाले बन्दे ने बताया कि आपका वीजा सरकारी कम्पनी का एक्सक्लूसिव टाइप का वीजा है, और ऐसा वीजा सामान्यतः बहुत अर्जेन्सी मे ही इशू किया जाता है और इसमे साफ साफ लिखा है कि कुवैत सरकार को इस वीजा होल्डर की अर्जेन्ट जरूरत है सो यथासम्भव सहायता की जाय.और किसी भी जगह पर रोका नही जाय. मैने अपने आपको गौरवान्वित महसूस किया, और इसी ऐंठन मे अपने कमरे की तरफ बढ चला.अब चाल मे कुछ अलग ही बात थी। इधर थकावट भी काफी हो चुकी थी और नहाने का भी मूड हो रहा था, इसलिये मै सीधा बाथरूम मे घुस गया. बाकी की कथा, अगले अंको मे.
अगले अंक मे जारी