Category Archives: जीवन का सफ़रनामा

वीजा का झमेला

गतांक से आगे

तो जनाब अब तक आपने देखा कि हमने अपना ठिकाना तो बना सॉरी यार, पसन्द कर लिया, अब मसला था वीजा प्रोसेसिंग का। चूँकि अभी तक हम बिजीनैस वीजा पर आए थे, कम्पनी ने हमे बोला कि तुम्हारी वीजा बदलवानी पड़ेगी। लिहाजा तुमको वीजा आफिसर के सामने हाजिरी लगानी पड़ेगी। मरता ना क्या करता, जाना पड़ा। बाहर लाइन मे खड़े खड़े एक बुजुर्ग नुमा व्यक्ति,जो शकल सूरत से मौलाना दिख रहे थे, ने हमे बोल दिया, तुम्हारा काम नही होगा। हमने पूछा क्यों? बोला, यहाँ के कानून के मुताबिक तुमको एक बार कुवैत से बाहर जाना होगा, फिर दोबारा इन्ट्री करवानी होगी, तब जाकर तुमको वीजा मिलेगा। ऊपर से तुमने अपने देश मे मेडिकल शेडिकल भी नही कराया है, इसलिए उसको कराने के लिए भी तुमको वापस इन्डिया जाना पड़ेगा। हम वैसे ही डरे हुए थे, ऊपर से ये मौलाना, हमने इन मौलाना को मन ही मन डेढ सौ गालियाँ निकाली, क्या कहा? इत्ती कैसे आती है? अमां हम कानपुरी है, डेढ सौ क्या डेढ हजार गालिया आती है, देते नही है तो इसका मतलब ये नही कि आती नही।

वीजा आफिसर का कमरा क्या था जी एक बहुत बड़ा हाल था, इत्ता बड़ा था कि इन्डोर क्रिकेट खेल सकें। वीजा आफिसर कमरे के दूसरे कोने पर था, और वीजा पाने वाले बन्दे (सात आठ के लॉट में) कमरे के इस कोने पर। वीजा आफिसर कुछ खड़ूस किस्म का था, मेरे सामने ही दो चार बन्दो को झाड़ चुका था। अब बोल तो वो अरबी रहा था, लेकिन लहजा डाँटने वाला ही था। हमे लगा, कि हमारी भी लग गयी आज। हमारे सिन्धियों मे एक कहावत होती है, अगर बहू को डाँटना हो तो, बहू की तरफ़ प्यार से देखते हुए, बेटी को जमकर डाँटो, बहू अपने आप समझ जाएगी। हमे लगा ये खड़ूस कंही सिन्धी दिमाग तो नही एप्लाई कर रहा। हम भी पक्के ढीठ, एकदम उल्लुओं की तरह इधर उधर देखते हुए, टाइम पास कर रहे थे। इसी बीच उस बन्दे के पास कोई फोन आ गया, बन्दे का लहजा ही बदल गया, आवाज मे एकदम मानो शहद टपकने लगा। उसने बात करते करते, अपने मातहत को बुलाया और अरबी मे कुछ कहा। मातहत मेरी तरफ़ बढा, वैसे ही वो खूंखार किस्म का दिख रहा था, उसने मेरे पास आते हुए पूछा, अंग्रेजी मे पूछा फलाना कम्पनी से कौन है, मैने अपनी मुन्डी हाँ मे हिलाई, दिमाग कह रहा था, कि बॆटा भाग ले, कुछ लफड़ा होने वाला है, लेकिन दिल ने कहा, अबे भाग के कहाँ जाएगा, जो होगा झेलेंगे। उस बन्दे ने कहा, साहब के पास जाओ। मै उस आफिसर के करीब गया, उसने तपाक से हाथ मिलाया और सामने वाली सीट पर बैठने को कहा।

हम समझ नही पा रहे थे कि ऐसा क्या जादू हो गया, कंही उसकी बीबी का फोन तो नही आ गया? जो उसकी आवाज मे शहद घुल गया। बाद मे पता चला कि मेरी कम्पनी से किसी ने फोन किया था, अब किसने किया था, हमे क्या पता, हमारा काम तुरत फुरत हो गया। उसने हमे फिर अपने आदमी के साथ मेडिकल करवाने भेजा। बाहर मौलाना फिर मिल गए, बोले “देखा! हमने कहा था ना, काम नही होगा। अब जाओ बेटा वापस” हमने उनकी तरफ़ शरारत भरी इस्माइल फैंकी, जिससे मौलाना और बौखला गए। हमने कहा “चचा! काम हो गया, अब मेडिकल के लिए जा रहा हूँ, ना मानो तो इस झाड़िए (आफिसर का अरबी बन्दा) से पूछो। मौलाना बोले, ये नामुमकिन है। बाकी काम झाड़िए ने सम्भाला, उसने मौलाना को अरबी मे कुछ बताया, जिससे मौलाना बस हाँ हाँ मे सिर हिलाते सुने देखे गए।

मेडिकल मे भी काम जल्दी जल्दी निबटा दिया गया, झाड़िया जैसा बन्दा जो साथ था। बन्दे ने वापस मेरे को आफिस छोड़ा, आफिस पहुँचकर, मैने मैनेजर को सारी बात बतायी। मैनेजर सिर्फ़ मन्द मन्द मुस्कराता रहा, हम समझ गए, हो ना हो इस सारी कारस्तानी/कारगुजारी के पीछे इस मैनेजर का ही हाथ है। खैर जनाब, वीजा का झमेला तो सुलट चुका था, अब बारी थी घर सजाने की, अब वो बीबी के बगैर कैसे होता, सो फैमली वीजा का जुगाड़ देखना था। लेकिन भई फैमिली वीजा का जुगाड़ तो तब होता ना जब मेरी रेजीडेंसी मेरे पासपोर्ट पर लग जाती, सोशल सिक्योरिटी कार्ड यहाँ पर इसे बताखा मदनिया बोलते है, मिल जाता। अब बताखा मदनिया तो तभी मिलता ना जब घर का कान्ट्रेक्ट हो जाता। तो मिलाकर कहानी जहाँ से शुरु हुई थी, वही पर पहुँच गयी। अब मकान के लिए भी उस मुए सर्विसेस डिपार्टेमेन्ट को साधना था जो पहले भी काफी पंगे कर चुका था। खैर मैनेजर ने चिट्ठी लिखवा दी थी, हमने भी कमर कस ली थी, सर्विसेस डिपार्टमेन्ट से दो दो हाथ करने के लिए। हाउसिंग कान्ट्रेक्ट मे क्या क्या पंगे हुए, वो अगली पोस्ट में।

जारी है अभी…….

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मसला ए रिहाइश

पिछले अंक से आगे

सबसे पहले तो मै आप सभी से माफ़ी चाहता हूँ, कि काफी दिनो बाद लिख रहा हूँ, क्या करूं कुछ जरुरी मसले थे जिनको निपटाने के बाद ही कुछ लिखने लायक कन्डीशन मे आ पाया हूँ। तो जनाब फ़िर से शुरु करते है जहाँ से खतम किया था।यानि कि मसला ए रिहाइश।

होटल के बिल का मसला तो सुलझ गया था, लेकिन फ़िर भी मन के किसी कोने मे लग रहा था, कि जेब में पैसे अभी भी कम हैं, कंही ऐसा ना हो कि कोई पंगा हो जाय। इन्ही उधेड़बनो मे बैठा था कि हिन्दुस्तान से फ़ोन आ गया, कि क्या हालचाल है, अभी हम(फ़ैमली) को बुलाने मे कितने दिन लगाओगे। दरअसल मुझे तो पता नही था, कि यहाँ वीजा का क्या तरीका है इसलिये घर पर पहले ही वादा कर आये थे, कि जाते ही हफ़्ते भर के अन्दर तुम दोनो (दोनो का मतलब? ओफ़्फ़ो, अमां यार बीबी एक ही है, और एक बच्ची है। आप भी ना, जाने कहाँ कहाँ तक सोच लेते है।) को बुला लूंगा। मैने बीबी को समझाया कि थोड़ा समय और लगेगा, मेरी वीजा प्रोसेस होते ही मै तुम लोगों की वीजा भेज दूंगा। अब मुझे क्या पता था, वीजा वालों के बताया, कि वीजा तभी मिलेगा जब अपना घर बनाओगे, मतलब मकान किराये पर लोगे। अब तो जोर शोर से मकान ढूंढने का दौर शुरु हुआ। आफ़िस पहुँचते ही असलम भाई (ड्राइवर) का फोन आ जाता कि जनाब चलिये (असलम भाई पाकिस्तानी हैं, इसलिये उर्दू बोल लेते हैं) ढूंढने निकले। असलम भाई वैसे तो बहुत मस्त आदमी थे, लेकिन कभी कभी हिन्दुस्तान पाकिस्तान की बहस मे उलझ जाते थे। उस समय वो गाड़ी बहुत तेज तेज चलाना शुरु कर देते थे। हमने उन्हे छेड़ना ठीक नही समझा।

तो सुबह सवेरे हम निकल पड़ते थे। आफ़िस सात बजे का था, थोड़ा काम निबटाकर लगभग दस से बारह बजे तक हम मकान देखते थे। वापस आफ़िस आ जाते थे, क्यों? खाना खाने आपके घर जाते क्या? खैर पाँच बजे असलम भाई फ़िर से गाड़ी लेकर होटल पहुँच जाते और फिर शुरु हो जाता मकान देखने का दौर। कुवैत मे कोई भी बाहरी व्यक्ति (Expatriate) मकान/फ़्लैट खरीद नही सकता, इसलिये किराये पर ही लेना पड़ता है। वैसे भी अगर खरीदने की आज्ञा होती भी तो अपनी औकात मे नही होता। मकान देखने के चक्कर मे हमने पूरा शहर देख मारा। यहाँ काफ़ी एरिया तो कुवैती एरिया है, और बहुत सारे एरिया एक्स्पैट्रीयेट एरिया कहलाते है, जिसमे राष्ट्रीयता के हिसाब से लोग रहते है। जैसे डाउनटाउन कुवैत मे फिलीपीनोज रहना पसन्द करते है, क्योंकि वो लोग यहाँ पर कार बहुत कम खरीदते है, पब्लिक ट्रान्सपोर्ट से ही काम चलाते हैं। वैसे बिना कार के कुवैते मे एक जगह से दूसरी जगह जाने मे काफ़ी परेशानी होती है, ये परेशानी तब और दोगुनी हो जाती है, जब फ़ैमली साथ हो।भारतीय और पाकिस्तानी एक साथ एक एरिया मे रहते है। यहाँ पर मिनी इन्डिया बसा हुआ है जिसे सालमिया कहते है। समुन्दर के किनारे बसा ये एरिया साउथ एशियन लोगों की मनपसन्द जगह है, लेकिन यहाँ मकान मिलना उतना आसान नही होता, क्योंकि अव्वल जो मकान है, मकान मुश्किल से खाली होते है और जो वो है भी बहुत महंगे किराये पर मिलते है।यहाँ रहकर आपको लगेगा ही नही कि आप हिन्दुस्तान से बाहर है। हर तरफ खाने पीने की दुकाने, हैयर कटिंग सैलून और इन्डियन ग्रासरीज स्टोर, एकदम हिन्दुस्तान/पाकिस्तान वाला माहौल।बहुत सोच विचार कर हमने सालमिया में बसने का निश्चय किया।

हमने कई मकान देखे सालमिया मे, कुछ हमने रिजेक्ट किये कुछ असलम भाई ने(असलम भाई हमारे हाउसिंग कन्सल्टेन्ट जो थे), आखिरकार हम दोनो को एक मकान पसन्द आ ही गया। मेन रोड पर बनी ये बिल्डिंग बहुत अच्छी कन्डीशन मे थी, अन्दर का नक्शा भी बहुत सही था और कन्स्ट्रक्शन क्वालिटी और फ़िटिंग बहुत अच्छी थी, हमने तो पहली नजर मे ही डन कर दिया। असलम भाई ने सैकड़ो सवाल दाग दिये हैरिस से। अब ये हैरिस कौन है, बताता हूँ यार,ठहरो तो। हैरिस बोले तो एक तरह का चौकीदार कम सफ़ाई वाला कम मैन्टीनेन्स वाला कम किराया वसूलीदार कम मकानमालिक का प्रोक्सी। हैरिस और भी बहुत सारे काम करता है, अब हम हैरिस पर लिखने लगेंगे तो पूरा ब्लॉग भर जायेगा, इसलिये इतना परिचय ही काफ़ी है।

वैसे हमे हैरिस का प्रोफ़ाइल बहुत सही लगा। हर बिल्डिंग मे एक हैरिस होता है जो सफ़ाई, मैन्टीनेन्स,किराया वसूली और सारे काम करता है। अक्सर ये अरबी होती है, यमन ,इजिप्ट और दूसरी गरीब मुल्को से आये बाशिन्दें। लेकिन कुछ जगहों पर ये काम पाकिस्तानी लोग भी करते है। हमारा हैरिस ईरान से सटे पाकिस्तानी बार्डर का था, सो उसे उर्दू, पर्शियन और अरबी अच्छी बोलने आती थी। ये हमारे लिये वरदान भी था और श्राप भी। वरदान इसलिये कि हम एक दूसरे की बात आसानी से समझ सकते थे, श्राप इसलिये कि असलम भाई हैरिस को गालियां नही निकाल सकते। हैरिस ने असलम भाई के सारे सवालों के जवाब सहजतापूर्वक दिये। हालांकि असलम भाई ने हैरिस को पकाने मे कोई कसर नही छोड़ी थी, लेकिन वो बहुत सहनशील निकला। असलम भाई ने भी डन कर दिया। और इस तरह हैरिस के साथ साथ मकान भी पास हो गया।हैरिस के साथ साथ हमने भी चैन की सांस ली, हैरिस ने क्यों अमां यार वो भी असलम भाई को झेलते झेलते पक गया था।हम हैरिस को अपनी कम्पनी की हाउसिंग डिपार्ट्मेन्ट का कार्ड देकर और उससे उसके आफ़िस का नम्बर लेकर आ गये। इस तरह रिहाइश का मसला सुलझा। लेकिन हमे क्या पता, अब वीजा प्रोसेस मे बहुत मशक्कत करनी पड़ेगी, उसकी कहानी अगली बार।

अगले अंक मे जारी है

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चिन्ता और समाधान

पिछले अंक से आगे

मै अच्छा खासा अपना समय व्यतीत कर रहा था। होटल मै बैठकर मुफ़्त की रोटियां तोड़ रहा था। लेकिन रुकिये….यहां पंगा हो गया था, वो भी एक नही दो दो ।एक तो फ़ाइव स्टार का खाना,फ़िर ऊपर से अरेबियन टेस्ट का, एक दो दिन तो अच्छा लगा, लेकिन ज्यादा दिन मै वो खा पाने मे असमर्थ था। मैने आसपास किसी इन्डियन रेस्टोरेन्ट को ढूंढना शुरु किया। ज्यादा दूर नही जाना पड़ा, थोड़ी सी ही दूर पर एक इन्डियन रेस्टोरेन्ट था, जहाँ पर घर के स्वाद का इन्डियन भोजन मिलता था। मै सुबह नाशते मे तो फ़ल वगैरहा ले लेता था, लंच किसी तरह अरबी फ़ूड झेल लेता था, मगर शाम को डिनर करने के लिये उसी इन्डियन रेस्टोरेंट पर जाया करता था। लौटते वक्त अच्छी खासा टहलना भी हो जाता था। मगर एक दिन मै अपने कमरे मे बैठा था, तो रिसेप्शन से फ़ोन आया,रिसेप्शन वाले बन्दे ने पूछा कि क्या मै अगले हफ़्ते भी यहाँ रहने वाला हूँ, मैने कहा, कम्पनी जब तक चाहेगी, तब तक तो मै यही चिपका रहूंगा, लेकिन उसके दूसरे प्रश्न ने मुझे हैरान और परेशान कर दिया, उसने पूछा कि आप पैमेन्ट क्रेडिट कार्ड से करेंगे या कैश। मै सकपका गया, अभी तक तो मै यही समझ रहा था कि मै कम्पनी का मेहमान हूँ और कम्पनी ही सारा खर्च उठायेगी। मैने फिर भी पूछ लिया कितना चार्ज है, उसने जो चार्ज बताया तो मेरे पैरो की नीचे से तो जमीन खिसक गयी, आंखो के सामने अंधेरा छाने लगा और मुझे गश आते आते रह गया। क्योकि जेब मे कुल जमा मिलाकर पैसों से सॉरी डालरों से उसके दो दिनो का पैमेन्ट भी नही हो सकता था।मैने अपने आप को सम्भाला और उसे टालते हुए बोला कि मै कम्पनी से बात करके ही कुछ बता सकूंगा। उस रात मै सो नही सका। सुबह होते ही सबसे पहले मैने ये मसला अपने मैनेजर के सामने उठाया।

मैनेजर ने पूरी बात सुनी और ढेर सारी गालियाँ हाउसिंग विभाग (दरअसल हाउसिंग विभाग ही कम्पनी के मेहमानो की आवभगत के लिये जिम्मेदार होता है) के हैड के लिये निकाली। तुरन्त सैक्रेटरी को बुलवाया और एक लम्बा चौड़ा फ़ैक्स हाउसिंग वालो को भेजा, फ़ैक्स क्यों? अमां हमे क्या पता? हम तो खुद नये नये है, थोड़े पुराने हो तो बता सकेंगे।अब इतने दिनो बाद जाकर मैं अनुमान लगा सका हूँ, आमने सामने गालियों का आदान प्रदान नही हो सकता और चूंकि लोकल काल फ़्री है, इसलिये सारा सरकारी महकमा गाली गलौच सॉरी पत्राचार के लिये फ़ैक्स को ज्यादा प्रयोग करता है।हाउसिंग वाले ने जवाबी फ़ैक्स भेजा(मुझे उनका जवाबी कीर्तन बहुत अच्छा लगा यानि इधर शेर दगा नही, उधर से नज्म फ़ायर हुई) जिसमे माफ़ी मांगी गई थी, और असुविधा के लिये खेद प्रकट किया गया था, अब सारा कुछ अरबी मे था, लिहाजा मेरे पल्ले कुछ नही पड़ा। थोड़ी देर मे एक और फैक्स आया जिसमे होटल वाले को निर्देश दिया गया था, कि रहने का बिल कम्पनी देगी, मेहमान को कुछ नही बोला जाय। ये भी अरबी मे था, इसलिये मेरे ऊपर से निकल गया।

मैनेजर के निर्देशानुसार मै फैक्स लेकर होटलवालों के पास पहुँचा, होटल वालों ने दो खबरें सुनाई, एक अच्छी और एक बुरी, अच्छी ये कि होटल मे रहने का बिल कम्पनी देगी और बुरी ये कि खाने पीने का बिल मुझे देना होगा। अब मुझे भी धीरे धीरे यकीन होने लगा था कि हाउसिंग वाले सचमुच मे कमीने टाइप के इन्सान है।मैने खाने का बिल खुद देने का निश्चय किया, लेकिन अगले दिन मैनेजर ने पूछ लिया, कि खाने और आईएसडी टेलीफ़ोन काल वगैरहा के बिल कौन दे रहा है, मैने कहा कि मै, तो वो फ़िर भड़क गया, फ़िर गाली गलौच, फैक्स, फिर जवाबी फैक्स,माफ़ीनामा, होटल वाले की अच्छी और बुरी दो खबरे।इस बार बुरी ख़बर ये थी कि लान्ड़्री का बिल मुझे देना होगा, मैने चुपचाप लान्ड़्री का पैमेन्ट होटल वाले को कर दिया, इस बार मैने ये मसला मैनेजर को न बताने का निश्चय किया, नही आप भी झेल जाते…फ़िर गाली गलौच,फैक्स, फिर जवाबी फैक्स,माफ़ीनामा, होटल वाले की अच्छी और बुरी दो खबरे।देखा मैने आपको इतना झिलाने से बचा लिया।हाँ अब मै अपने पहला वाला वाक्य कह सकता है कि अब मै आराम से होटल मे बैठकर कम्पनी के खर्च पर मुफ़्त मे रोटियां तोड़ रहा था।

आशियाने की तलाश

अब मसला था होम सिकनैस का।घर परिवार की याद आ रही थी, वैसे भी फ़ाइव स्टार होटल मे रह रहकर घुटन हो रही थी, वही स्टाफ़ की नकली मुस्कराहट, कारीडोर मे सन्नाटा, अजनबी से लोग, और खाना(कब तक झेले इतना हाई कैलोरी फ़ूड) और फ़िर सारे माहौल मे अजीब सी महक(मै तो इसे गन्ध ही मानता हूँ) कुल मिलाकर फ़ुल्ली बनावटी माहौल।फ़िर अकेले रह रहकर भी उकता गया था, इसलिये कम्पनी को बोला कि जल्द से जल्द मकान की व्यवस्था करे। अब मकान की व्यवस्था भी उसी डिपार्टमेन्ट के हाथ थी, यानि हाउसिंग डिपार्टमेन्ट। कम्पनी ने एक गाड़ी और एक हाउसिंग वाला बन्दा मेरे साथ लगा दिया, ताकि मै पूरे शहर मे घूम घूम कर मकान देख सकूं। अब आफ़िस से आने के बाद, मिशन आशियाना शुरु होता था, यानि कि मकान की खोज। पूरे कुवैत मे मकान ढूंढते मुझे फ़िल्म घरौंदा का एक गीत याद आ रहा था:

एक अकेला इस शहर में, रात मे और दोपहर में।
आबोदाना ढूंढता है, आशियाना ढूंढता है।

अब मकान की व्यवस्था के साथ साथ, मेरी रेजिडेन्सी वीजा की प्रोसेसिंग भी होनी थी, और पता नही किस्मत मे और क्या क्या लिखा था। इसी बीच मुलाकात हुई मिर्जा साहब से। ये किस्सा आगे बयां होगा। आज के लिये इतना ही।

अगले अंक मे जारी है

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अजनबी देश, अनजाने लोग

पिछले अंक से आगे

नहाने के बाद सबसे पहले तो मैने चाय मंगवाई। मेरा कमरा होटल की चौदहवी मंजिल पर था। कमरे मे एक तरफ़, शाही सा डबल बैड था, दूसरी तरफ़ एक शीशे की दीवार के साथ साथ एक आरामदायक सोफ़ा सैट पड़ा था। शीशे की दीवार के पार समुन्दर का शानदार नजारा दिखाई दे रहा था। ये होटल समुन्दर से ज्यादा दूर नही था, वाकिंग डिस्टेन्स थी। बीच मे एक बड़ी सी सड़क पड़ती थी। ये होटल डाउनटाउन कुवैत सिटी मे था, सड़क के दूसरी तरफ़ एक बहुत ही शानदार शोरूम था, नाम था, जशनमल । नाम कुछ जाना पहचाना सा लगा। खैर इतने मे दरवाजे पर दस्तक हुई और रूमसर्विस वाला चाय ले आया था, मैने साथ मे कुछ हल्का सा नाश्ता भी मंगवाया हुआ था, सोफ़े पर बैठ बैठे और दूर समुन्दर का नजारा देखते देखते कब चाय खत्म हो गयी, पता ही नही चला। मैने अपनी डायरी निकाली और कम्पनी के नम्बर वगैरहा पता किये। फ़ोन पर मेरा मैनेजर मिला, वही इन्डिया आया था, इन्टरव्यू लेने। उसने कहा “आज वैसे भी वीकेन्ड है तुम आराम करो, सनडे से ज्वाइन कर लेना” लेकिन मैने कहा मै आफ़िस आना चाहता हूँ, उसने मेरे को रास्ता समझाया और मै आफ़िस पहुँचा।

आफ़िस जाकर, मैने बाकी सहकर्मियों का परिचय प्राप्त किया। मैनेजर मे मुझे ज्यादा कुछ करने नही दिया, बोला कि चिन्ता मत करो, तुम्हारी ज्वाइनिंग हो गयी है, आज का दिन तुम होटल मे आराम करो, कल और परसों वीकेन्ड की छुट्टी है दोनो दिन कुवैत घूमों-फ़िरो मौज करो, रविवार को ड्यूटी पर आओ। मैनेजर वापस मेरे को होटल तक छोड़ने आया, आते समय वो मेरे को आसपास की जगहो के बारे मे बता गया। समय था, लगभग साढे ११ बजे का। अब मैं निट्ठल्ला बैठे बैठे करता क्या? निकल पड़ा, बाकी जगहों का तो पता नही था, सीधा समुन्दर किनारे पहुँच गया। दिन गरम था,लेकिन हवा मे अभी भी उतनी गर्मी नही थी। समुन्द्र किनारे एक रेस्टोरेंट था, जहाँ बैठ कर लगभग घन्टा भर, चाय की चुस्कियों के साथ, समुन्दर की आती जाती लहरों को देखता रहा। ये लहरें मुझे बहुत अच्छी लगती है, नीला समुन्दर, उठती लहरें जीवन मे उल्लास भर देती है। जीवन भी इन लहरों के समान होता है, ना जाने कितने हिचकोले खाने के बाद, आप किस किनारे पहुँचे पता ही नही चलता। इसी उधेड़बुन मे एक घन्टा कब निकल गया, पता ही नही चला,अब भूख भी लगने लगी थी, खाने का समय भी हो चला था। मै जिस रास्ते से बीच पर गया था, उसी रास्ते से वापस होटल लौट आया। अब फ़ैमिली की बहुत याद आ रही थी।मुझे यकायक चन्दन दास द्वारा गाई एक गज़ल याद आ गयी:

अजनबी शहर के अजनबी रास्ते…मेरी तनहाई पर मुस्कराते रहे।
मै बहुत देर तक यूं ही चलता रहा, तुम बहुत देर तक याद आते रहे।

फ़्लाइट की बातों की याद

खाना खाकर, आलस सा आने लगा था, सो मै चादर तान कर सोने की कोशिश करने लगा।सोने से पहले मुझे फ़्लाइट की बाते याद आ रही थी, बहुत मजेदार घटनाये घटी थी। हुआ यूं कि मेरे साथ वाली सीट पर एक बन्दा बैठा था, जो बहुत घबराया हुआ था, शायद वह पहली बार हवाई जहाज मे चढा था।मैने उसको सीट बैल्ट बांधने मे मदद की। फ़्लाइट के दौरान, वो बन्दा हर वो हरकत कर रहा था, जो मै कर रहा था। खाने पीने मे नकल करना तो ठीक था, लेकिन हर चीज मे उसे मेरी नकल करते देखना बहुत अझेल लग रहा था। मैने एयर होस्टेज को साफ़्ट ड्रिंक लाने के बोला तो उसने भी वही आर्डर किया, यहाँ तक तो ठीक था, मेरे सर मे दर्द था, इसलिये मैने एस्प्रिन मांगी तो उसने भी मांगी, मैने एस्प्रिन ली तो उसने भी ली, अब मुझसे रहा नही गया। मैने पूछ ही लिया, भाई साहब, आप का चाहते हो? काहे हमारा भेजा खराब किये हो, नकल कर कर के। वो बोला, माइबाप, , पेशे से दर्जी हूँ, कुवैत मे मेरे भाईसाहब रहते है, उन्होने ने ही वीजा देकर बुलाया है, पहली बार तो घर से बाहर निकला हूँ, हवाई जहाज तो बहुत दूर की बात है, एसी ट्रेन मे भी आज ही बैठा था, इसलिये मुझे यहाँ जहाज के बारे मे कुछ आइडिया नही है, आपको देख देखकर ही मै नकल कर कर के, समझने की कोशिश कर रहा हूँ। मुझे गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन साथ मे उस पर तरस भी आया। अब क्या करता, सारे रास्ते उसको झेलता रहा, चुपचाप। लेकिन अब याद कर रहा था, तो उस बन्दे के एक एक एक्शन को याद करके करके हंसी आ रही थी।

कुवैत दर्शन

किसी भी शहर का परिचय जानने का मेरा अपना तरीका है,मै बस/लोकल ट्रेन द्वारा उस शहर का चप्पा चप्पा देख मारता हूँ, इससे बाकी कुछ हो ना हो,आपको शहर के नक्शे से परिचय हो जाता है साथ ही सहयात्रियों के आचार विचार,व्यवहार से शहर मे रहने वाले लोगों की एक झलक भी मिल जाती है। मैने पास के बस टर्मिनल से एक रूट के आखिरी स्टाप की टिकट ली(कुवैत मे बस के रेट स्टैन्डर्ड है, चाहे जहाँ से चढो, चाहे जहाँ उतरो) और आखिरी स्टाप से वापस, शुरुवात के स्टाप तक आया। खिड़की वाली सीट पर बैठकर मै बाहर के नजारे देखता रहा और साथ ही शहर का नक्शा अपने दिमाग मे बैठाता रहा। रास्ते मे चढने और उतरने वाले यात्रियों, जिसमे से ज्यादातर साउथ एशिया(भारत,पाकिस्तान,श्रीलंका,बांग्लादेश) से थे, उनसे बातचीत करता रहा और सभी ने विचार जानने की कोशिश करता रहा। अभी तक दीनार और फ़िल्स (पैसों के बराबर करैन्सी) का आइडिया नही था, इसलिये बस मे चढते वक्त, सारे खुल्ले पैसे अपने हथेली पर रख देता, ड्राइवर अपने आप ईमानदारी से १५० फ़िल्स ले लेता और बाकी के चेन्ज वापस मेरी हथेली पर रख देता। बहुत सही हिसाब किताब चल रहा था, रोजाना मै, शाम को इस प्रक्रिया को दोहराता, इस तरह से मैने शहर के दूर दराज के एरिया भी देख डाले। कुवैत मे लगभग सारी बसे एयरकन्डीशन्ड होती है, सिवाय एक दो रूट के। सबका किराया एक सा है, १५० फ़िल्स, चाहे जहाँ जाओ। कन्डक्टर नाम की चीज यहाँ नही होती, ड्राइवर ही कन्डक्टर होता है, आपको बस का टिकट खुद लेना होता है,ड्राइवर कभी आपके पास नही आयेगा। हाँ बीच बीच टिकट चैकर जरुर चढता है, जो रैन्डमली टिकट चैक करता है और बिना टिकट पकड़े जाने पर बहुत लम्बा चौड़ा फ़ाइन होता है। खैर अपने साथ ऐसा कोई हादसा नही हुआ। बस मे आगे वाले गेट से चढते है, आगे की कुछ सीट्स लेडीज के लिये छोड़ी जाती है, तीन चार सीट के बाद, आप बैठ सकते है। बस अपने स्टाप के अलावा कंही नही रूकती, स्टाप आने से पहले आपको गेट के पास पहुँचना होता है।

कुवैत में सड़के बहुत चौड़ी और हाइवे बहुत फ़ास्ट स्पीड वाले होते है। हर तरफ़ एक से बढकर चमचमाती कारे दिखती है और चारो तरफ़ हरियाली ही हरियाली दिखती है।कुवैत अरेबियन गल्फ़ के आखिर मे छोटा सा देश है। जो दो तरफ़ सउदी अरब और एक तरफ़ ईराक से घिरा है, चौथी दिशा मे समुन्दर(अरेबियन गल्फ़) है, समुन्दर के उस पार ईरान है। कुवैत विभिन्न एरिया (जिन्हे यहाँ अलग अलग शहर माना जाता है), जैसे कुवैत सिटी,फ़ाहहिल,सालमिया,अहमदी, जाहरा, शुवैख मे बंटा हुआ है।कुवैत सिटी डाउनटाउन है, जहाँ विभिन्न आफ़िसेस है, फ़ाहहिल पोर्ट के पास बसा शहर है और इसके पास ही बसे अहमदी मे पेट्रोलियम रिफ़ाइनरी वगैरहा है। जाहरा ईराक के बार्डर पर बसा शहर है, जहाँ आज भी कुवैत के अतीत की झलक देखी जा सकती है।सालमिया एक तरह से मिनी इन्डिया है। शापिंग माल वगैरहा यहाँ बहुतायत मे है, इसे शापिंग डिस्ट्रिक्ट भी माना जा सकता है।शुवैख इन्डस्ट्रियल टाउन है, जहाँ सारे कारखाने,गैराज,गोदाम वगैरहा है।कुवैत की आबादी ज्यादा नही है, लगभग २० लाख की आबादी है, जिसमे आधी तो बाहर से आकर काम करने वाले लोगों की है। बाहर से आने वाले, एक्सपेक्ट्रियेट मे सबसे ज्यादा भारतीय और इजिप्शियन है। भारतीय लोगों की यहाँ काफ़ी इज्जत है, क्योंकि कुवैत और भारत के सम्बंध बहुत घनिष्ठ है। सारे तकनीकी कामों के लिये भारतीयों को वरीयता दी जाती है।कुवैत का इतिहास बहुत ज्यादा पुराना नही है, १९४० से पहले यह एक बहुत ही अन्जाना सा देश था,और उस समय यहाँ पर इन्डियन करैन्सी ही चलती थी। तेल मिलने के बाद, इसका महत्व बहुत बढ गया और रातो रात ये अमीर देशों की कतार मे जा खड़ा हुआ।छोटा देश होने की वजह से इसकी GDP भी बहुत अच्छी है, ज्यादा जानकारी के लिये यहाँ देखिये। या फ़िर गूगल मे कुवैत सर्च करिये

अगले अंक मे जारी

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चल उड़ जा रे पंछी…..

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३ मई,२००१ का दिन, गुरूवार की सुबह सुबह मै कुवैत एयरपोर्ट पर उतरा, दिल्ली काफी पीछे छूट चुका था, और साथ ही छूट चुकी थी, खट्टी मीठी यादें. बचपन बीता कानपुर की गलियों मे, पढाई के लिये कई बार शहर को कई कई महीनो के लिये छोड़कर गया, लेकिन अन्ततः कानपुर को ही कर्मस्थली बनाया, कानपुर के कम्पयूटर उद्योग मे काफी यश अपयश कमाया, फिर एक दिन लगा कि ये वो मंजिल नही, जिसकी मुझे तलाश है. कानपुर मे रहकर वो सब कुछ हासिल कर पाना मुमकिन नही दिखा, जिसकी मुझे तलाश थी. फिर नयी शुरुवात हुई दिल्ली मे एक साफ्टवेयर कम्पनी मे प्रोजेक्ट मैनेजर के रूप मे, काफी कुछ सीखा, समझा और पाया कि अब तक कानपुर मे रहकर मै जो कर रहा था, वो समय की बरबादी के सिवा और कुछ नही था.लेकिन हर चीज कुछ ना कुछ नया सिखाती है, सो कानपुर मे रहकर कस्टमर इन्टरेक्शन,सपोर्ट और रिक्वायरमेन्ट एनालिसिस मे मैने जो महारत हासिल की थी, उसका काफी फायदा दिल्ली मे दिखा. यहाँ आकर नयी नयी टैक्नोलोजी पर हाथ साफ किया, टीम मैनेजमेन्ट के काफी गुर यहाँ पर आकर ही सीखे. नयी चीजे सीखने का मेरे को बचपन से ही शौंक रहा है.धीरे धीरे काम बढा, व्यस्तता बढी,ख्याति बढी साथ ही जानकारी भी. दिन कब निकल जाता पता ही नही चलता और कब रात हो जाती, कोई खबर नही होती. जब घर से फोन आता कि कब आओगे, तब पता चलता अरे! ये तो रात के दस बज रहे है, फिर फटाफट पैकअप करता, और घर की तरफ भागता. घर वाले कहते थे, मै उन पर जुल्म कर रहा हूँ और अपनी लाइफ को इतना बिजी करके अपने आपको भी तकलीफ दे रहा हूँ, और साथ ही अपनी नन्ही सी बेटी को भी वक्त नही दे पा रहा हूँ. मै चुपचाप इन इल्जामों का सुनता रहता.बोलता क्या, कोई जवाब होता तो ही देता ना.लेकिन एक और शख्स था जो चुपचाप मेरे जुल्म सह रहा था, वो था रामसिंह. मेरा ड्राइवर, बेचारे को सुबह छह बजे ड्यूटी पर आना होता था और रात का तो कुछ पता ही नही चलता था. लेकिन रामसिंह ने कभी भी मुंह नही बनाया, उत्तरान्चल की पहाड़ियों के किसी कस्बे का ये गबरू नौजवान, हमेशा हँसता मुस्कराता रहता. कभी कभी तो मुझे उससे जलन होती कि कैसे ये इतने स्ट्रैस मे भी मुस्करा पाता है. कई बार सोचा कि अपने वर्क स्ट्रैस को कम करने के लिये किसी मैडीटेशन क्लास को ज्वाइन करूँ, हमेशा मामला सिर्फ रजिस्ट्रेशन और फीस जमा करने तक ही सीमित हो जाता था, क्लास ज्वाइन करने वाले दिन ना जाने कैसे टूर का प्रोग्राम बन जाता था और फिर वही ढाक के तीन पात.

अब दिल्ली को कर्मस्थली तो बनाया, लेकिन कभी दिल मे नही बसा सका. कहाँ वो कानपुर का बेफ्रिक्र सा शहर,हर तरफ जानी पहचानी गन्दगी, धूल मिट्टी, देखी समझी गलियाँ,वो नजाकत और नफासत की जुबान, दोस्तो से तो बिना गाली गलौच के तो बात ही नही होती थी.और कहाँ ये दिल्ली, कुछ पता ही नही चलता कि अगला बन्दा कौन सी भाषा मे अगला जुमला बोल दे, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की डन्डामार बोली या फिर हरयाणवी। ऊपर से तुर्रा ये कि पंजाबी तो जैसे मातृ भाषा हो।इतना सबकुछ सहकर भी हम दिन काटे जा रहे थे, सोचने का वक्त ही किसे था.फैमिली ये सोच कर खुश थी कि देश की राजधानी मे रह रहे है, उनकी ये खुशी ज्यादा दिन नही रही, क्योंकि एक के बाद एक आने वाले नजदीक और दूर के रिशतेदारो और मेहमानो ने नाक मे दम कर रखा था.जिसे देखो मुंह उठाकर हमारे घर की तरफ़ दौड़ा चला आता था। घर घर ना रहा धर्मशाला हो गया। मै तो आफिस और टूर पर रहता था, परेशानी तो श्रीमतीजी को थी, थोड़े ही दिनो मे उनको भी पता चल गया कि दिल्ली मे रहने के क्या नफ़ा नुकसान है.लेकिन अब पछताय का होत, जब चिडिया चुग गयी खेत।लेकिन शायद ईश्वर से मिसेज की परेशानी देखी नही गयी।जिन्दगी ठीक ठाक चल ही रही थी कि फिर एक दिन सब कुछ कुछ बदल दिया.

विदेश यात्रा का योग

इन्टरनैट पर किसी जाब साइट पर मेरे प्रोफाइल को देखकर एक नही तीन तीन कम्पनियों ने मेरे को जाब आफर भेज दी थी, एक लन्दन मे बसी किसी भारतीय की साफ्टवेयर कम्पनी थी, दूसरी थी अमरीका की एक कम्पनी और तीसरी थी कुवैत मे एक पेट्रोलियम कम्पनी. तीसरी कम्पनी से बातचीत तो दो साल पहले से चल रही थी, और मै हमेशा उनको टालता आ रहा था, क्योंकि मेरे को मिडिल ईस्ट मे जाने का कतई शौंक नही था. वे लोग जब भी इन्डिया आते, मेरे को मिलने के लिये जरूर बुलाते जरूर, हर बार वे अपने आफर को रिवाइज करके पटाने की कोशिश करते. इस बार भी उनका मैनेजर दिल्ली आ रहा था, और मेरे को रैडिसन होटल मे अपने इन्डिया आफिस मे मिलने के लिये बुलाया. इस बार मैने सोचा था, कन्टी मार जाऊंगा, लेकिन ऐसा हो नही सका, क्यों, उसकी भी अजीब कहानी है. मेरा यूएसए जाने का लगभग पक्का हो चुका था, और मैने उनको पासपोर्ट की कापी भी उनको भेज दी थी. इसी वजह से मैने लन्दन वाली कम्पनी को ना कर दिया था. अब आप इसे किस्मत कहिये या नसीब, लन्दन वाली कम्पनी फ्राड निकली, और मै बाल बाल बच गया. अब यूएसए ही पक्का हो चला था, एक दिन उनका फोन आया कि उनकी कम्पनी एक दूसरी कम्पनी ने टेकओवर कर ली है लेकिन आपका एप्रूवल हो चुका है, लेकिन नियुक्ति तीन महीने बाद ही हो सकेगी, क्योंकि कुछ तकनीकी वजहे थी. मामला साफ दिख रहा था कि कम्पनी नियुक्ति देने मे आनाकानी कर रही थी, ऐसा सिर्फ दो वजहों से ही होता है या तो उनको कोई मेरे से ज्यादा काबिल बन्दा मिल गया था, या फिर मेरे से ज्यादा सस्ता बन्दा मिल गया था, या फिर दोनो वजहें एक साथ हो सकती है. गुस्सा तो बहुत आया, सारे सपने धराशायी होते दिखे, फिर बी गुस्से पर काबू किया और मैने भी मन ही मन निश्चय कर लिया था कि अब इस कम्पनी की इमेल्स और फोन काल्स का भी जवाब नही दूँगा.

इस बीच कुवैत वाले लोग दिल्ली आ रहे थे, तो मैने उनसे मिलने का निश्चय किया. काफी निगोशियशन्स के बाद ये तय हुआ कि मै तीन महीने कुवैत मे रहकर देखूँगा, और पसन्द आया तो ही उसके बाद फैमली को बुलाऊंगा, उनको कोई आपत्ति नही थी. सो फटाफट नियुक्ति पत्र और टिकट भिजवायी गयी, वे तो चाहते थे, कि मै अगली ही फ्लाइट से कुवैत पहुँच जाऊँ, लेकिन वर्तमान कम्पनी से भी कुछ कमिटमेन्ट्स थे, वो भी निभाने थे, जो प्रोजेक्ट मे कर रहा था, उसके खत्म होने मे दो महीने का वक्त बाकी था, मैने अपने प्रोजेक्ट लीडर को सैट किया और सारा काम हैन्डओवर करने का प्रोसेस चालू किया, रिजाइन लैटर तो मै नियुक्ति पत्र मिलते ही दे चुका था, किसी तरह से बाकी का बचा काम पूरा कराया. तो कम्पनी अड़ गयी, कि रिलीज नही करेंगे, चाहो तो कुवैत से मिले आफर को मैच कर देंगे. लेकिन अब काफी देर हो चुकी थी, कुवैतियों को भी हाँ बोल चुका था, उधर श्रीमती जी भी मेरे अति व्यस्त होने के घटनाक्रम से दुखी थी, सो मुझे वर्तमान कम्पनी के नये मलाईदार आफर को ना करना ही पड़ा और कुवैत के लिये प्रस्थान करने के लिये प्रक्रिया चालू कर दी.

यात्रा की तैयारियां

मै सबसे पहले तो नियु्क्ति पत्र और वीजा लेकर दिल्ली स्थित कुवैत दूतावास गया. दूतावास के बाहर एक खिड़की पर कोई दढियल क्लर्क बैठा था, मैने अपने कागज उसकी और बढाये, उसने बिना देखे ही मेरे को लम्बा चौड़ा प्रोसेस बताया और बोला कि मेडीकल होगा, ये होगा, वो होगा, वगैरहा वगैरहा. मै परेशान, सोचा कि कहाँ फंस गया यार!.मैने पेट्रोलियम कम्पनी के दिल्ली आफिस को फोन किया तो वे बोले, वंही पर रूककर हमारे फोन का इन्तजार करो, पन्द्रह मिनट बाद उनका फोन आया और वे बोले कि कुवैत दूतावास मे जाकर फलाने आफिसर से मिल लो, वो आपका इन्तजार कर रहे है, अब गेट पर बन्दा अन्दर जाने दे, तभी तो बात हो ना, किसी तरह से गेटकीपर को फ़लाने आफ़िसर का नाम बताया, बहुत समझाने बुझाने पर उसने फ़ोन से बात करवाई और उसके आदेश पर ही दरवाजा खुला और हम अंदर घुसे और आफिसर से मिले, उसने मेरे कागजात देखे और बोला, आपको कुछ नही करना है, सीधी फ्लाइट लीजिये और कुवैत की तरफ प्रस्थान कीजिये. खिड़की वाले बन्दे को भी बुलाकर डाँट पिलायी कि किसी को सलाह देने के पहले कागजात देख लिया करो, अब कागजों मे तो सब कुछ अरबी मे लिखा दिख रहा था और अरबी तो मेरे पुरखों को भी नही आती थी. खैर अब जब लोगों को पता चला कि मै विदेश वो भी गल्फ़ जा रहा हूँ तो रोजाना सलाह देने वालों की भीड़ लगने लगी। मिसेज तो चाय पिला पिलाकर थक गयी, लेकिन पति विदेश जा रहा है, इसके अहसास से ही उनमे नयी स्फ़ूर्ति थी, इसलिये एक नही कई कई चाय के पैकेटों की कु्र्बानी दी गयी। कई लोगों ने सलाह दी कि कुछ अरबी सीखने की किताबे भी लो, खोज शुरु हुई, और जाकर खत्म हुई, पुरानी दिल्ली के जामा मस्जिद के इलाके मे जहाँ से हिन्दी अरबी और अंग्रेजी अरबी सिखाने वाली किताब मिली, साथ ही एक किताब और खरीद ली “खाड़ी मे कैसे काम करें और रहें?” (HOW TO WORK AND LIVE IN GULF), दोनो किताबों को पढा, पल्ले तो कुछ नही पड़ा, फिर भी सब कुछ समझने का नाटक करता रहा.खैर कुछ और लोग भी सामने आये, समझाने के लिये, अब उन पर लिखूंगा तो ब्लाग भर जायेगा, उसपर फिर कभी. अब वो दिन भी आया जिस दिन मुझे कुवैत के लिये निकलना था. यानि कि २ मई, २००१ की रात. तो जनाब ये था सफ़र की शुरुवात का दिन। यानि हिन्दुस्तान को अलविदा कहने का वक्त आ गया था। दिल भारी था, मन बैचेन, लेकिन कंही ना कंही मुझे गुमान था कि मै अपनी मंजिल की तरफ़ कदम बढा रहा हूँ।

कुवैत:प्रथम परिचय

दिल्ली से कुवैत का सफर पूरे साढे तीन घन्टे का था, सुबह सात बजे हवाई जहाज ने रनवे पर कदम रखा और मैने एक नये और अजनबी देश मे. मन मे कई सवाल थे, बहुत सारी आशंकायें थी लेकिन मन मे बस एक ही विश्वास था, कि जल्द ही मै वापस अपने देश मे लौटूंगा क्योकि मै सोच कर आया था, जरा सा भी मामला उन्नीस बीस दिखा, तो दिल्ली की फ्लाइट पकड़ने मे ज्यादा देर नही लगाऊँगा. कुवैत के बारे मे जानकारी इकट्ठा करने का समय ही नही था, इसलिये बस कुवैत के बारे मे बस यही पता था कि दुनिया के सबसे अमीर देशो मे से एक है, गल्फ के रेगिस्तान मे, संसार मे सबसे ज्यादा गर्म स्थलो मे से एक है, जहाँ इतनी गर्मी होने के बावजूद भी आबादी बसती है. सोचते सोचते बाहर निकलने का वक्त आ गया. मै एराइवल लाउन्ज से आगे इमीग्रेशन काउन्टर पर बढा, वहाँ बैठा कुवैती जिस तरह से लोगो को हैन्डिल कर रहा था, उसे देखते ही मुझे कुवैतियों के अक्खड़ होने का अहसास हुआ, ये मेरा पहला इम्प्रेशन था, मै भी लाइन मे लग गया और अपनी बारी आने पर अपना पासपोर्ट और वीजा उसकी तरफ बढाया, बन्दे की नजरे हर बन्दे को एक्सरे कर रही थी. सो कागज लेने के पहले उसने मेरे को भी कुछ ऐसी नजरो से देखा जैसे कि मै हिन्दुस्तान मे कोई बैंक लूट कर आया हूँ, लेकिन कागज उसके हाथ मे पहुँचते ही उसके चेहरे के एक्प्रेशन बदलने लगे, अक्खड़पने की जगह अपनापन दिखने लगा उसने अरबी लहजे वाली अंग्रेजी मे मुस्कराते हुए कहा “वैलकम टू कुवैत, होप यू वुड लाइक दिस कन्ट्री”, मै थैक्यू कहकर सोचने लगा कि मेरे कागजों मे ऐसा क्या था, जिसने उसके व्यवहार को बदल कर रख दिया, अब वीजा मे जो लिखा तो वो तो मेरे पिताजी भी नही पढ सकते थे, इसलिये मैने चुपचाप बाहर निकलने मे ही भलाई समझी. एक बात और बता दूँ कि दिल्ली से कुवैत आते समय मै सिर्फ दस बारह हजार रूपये ही डालर कन्वर्ट करा कर आया था, क्योंकि मेरे को बताया गया था कि कुवैत पहुँचकर आपको पैसे मिल जायेंगे, और हिन्दुस्तान मे जारी किया गया क्रेडिट कार्ड भी कंही नही चलता था, सो मेरे मन मे कुछ कुछ चिन्ता तो थी ही. खैर मै बाहर निकला तो एराइवल लाउन्ज के एक्जीट पर एक शोफर मेरे नाम का बोर्ड लगाये, बड़ी बेसब्री से इन्तजार कर रहा था. मैने उससे नजरें मिलायी और उसको हैलो बोला, उसने इसके जवाब मे मेरी ट्राली मेरे से ले ली, मुझे अजीब लगा, मेरे पास बहुत सारे सवाल थे, लेकिन अब करता क्या, वो कुछ बोले तो मै कुछ बताऊँ ना.शोफर ने मुझे गाड़ी की तरफ रास्ता दिखाया, और हम कुवैत शहर की तरफ निकल पड़े. कुवैत मे चारो तरफ इतनी हरियाली देखकर मेरा तो दिमाग ठनक गया और मै सोच मे पड़ गया कि कंही मै गलत जगह तो नही उतर गया, कहाँ मेरे दिमाग मे रेगिस्तान और कहाँ ये हरा भरा सा शहर, कुछ पल्ले ही नही पड़ रहा था, और ड्राइवर भी चुन कर भेजा गया था, जिसको हैलो के आगे अंग्रेजी का एक शब्द भी नही आता था. मैने खिड़की के बार के नजारों मे अपना ध्यान लगाने की कोशिश की. मै आगे वाली सीट पर ड्राइवर के पास ही बैठा था, ताकि मेरे को नजारा अच्छा दिखायी पड़े, ड्राइवर ने मेरे को सीट बैल्ट बांधने मे मदद की, अब ये पहला मौका था, जब मे कार मे बैठकर सीट बैल्ट बांध रहा था, हिन्दुस्तान मे तो कार की सीट बैल्ट का उपयोग ही नही पता था. मै होटल पहुँचा, कम्पनी ने ये होटल इसलिये सिलेक्ट किया था क्योंकि ये आफिस के बेहद करीब था. होटल के रिसेप्शन पर पहुँचकर कुछ राहत महसूस हुई क्योंकि वहाँ पर बन्दा इन्डियन दिख रहा था, मैने सोचा चलो भई, कुछ तो कोई तो मिला जिसको मै वीजा दिखाकर सवाल पूछ सकूंगा. खैर मैने फार्मेल्टीज पूरी की, और अपने कमरे की तरफ बढा.

सस्पेन्स का पटाक्षेप

रिशेप्सन वाला भइया, अपने बनारस का था, उसको मैने कागज दिखाकर पूछ ही लिया कि इन कागजों मे कौन सी अच्छाई/खराबी है, जो हर बन्दा मेरे को विशेष नजरो से देखता है.होटल वाले बन्दे ने बताया कि आपका वीजा सरकारी कम्पनी का एक्सक्लूसिव टाइप का वीजा है, और ऐसा वीजा सामान्यतः बहुत अर्जेन्सी मे ही इशू किया जाता है और इसमे साफ साफ लिखा है कि कुवैत सरकार को इस वीजा होल्डर की अर्जेन्ट जरूरत है सो यथासम्भव सहायता की जाय.और किसी भी जगह पर रोका नही जाय. मैने अपने आपको गौरवान्वित महसूस किया, और इसी ऐंठन मे अपने कमरे की तरफ बढ चला.अब चाल मे कुछ अलग ही बात थी। इधर थकावट भी काफी हो चुकी थी और नहाने का भी मूड हो रहा था, इसलिये मै सीधा बाथरूम मे घुस गया. बाकी की कथा, अगले अंको मे.

अगले अंक मे जारी

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